कछुए
जीवन की चाह में हम कितना
भगे रहते हैं।
जैसे बैठना और सोना,
और नींद में भागना,
ये सारी क्रियाएँ, भागने की दो क्रियाओं
के बीच की कड़ी बन जाती हैं।
भागते भागते
नज़र उठा,
धुँधलाते लोगों को देखते हैं,
और किसी रोज़,
खुद से ठहरने का वादा कर
फिर चलने लगते हैं।
छतों पर टँगी,
शहर की शामों को किसी रोज़
छतों से देखने का स्वप्न लिए,
बालकनी में खड़े,
रात के अंधेरे में,
दूर तक टिमटिमाती
शहर की बत्तियों को किसी अजाने क्षण में
पुनः देखने की आस लिए
हम चलते ही रहते हैं
पर कभी सोचा है,
कछुए क्यों धीमे चलते हैं?
और पेड़?
वे तो सदियों,
थमे रहते हैं!
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